आज से मुहर्रम शुरू हो रहा है। यानी नए साल की शुरुआत, क्योंकि ये इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है। लेकिन मुहर्रम, दुख और शोक का महीना भी है। क्योंकि आज से लगभग 1400 साल पहले, करबला यानी सीरिया की जंग हुई थी, जिसमें हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 फोलोअर्स ने, इस्लाम और मानवता की रक्षा के लिए, अपनी कुर्बानी दी थी। हजरत इमाम हुसैन, इस्लाम धर्म के संस्थापक, हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे थे। दरअसल, मुआविया की मौत के बाद, उनका बेटा यजीद गद्दी पर बैठना चाहता था। लेकिन वो बहुत अत्याचारी था। अपने अहंकार में, यजीद इतना अंधा हो चुका था, कि वो अल्लाह को भी नहीं मानता था! और लोगों को डरा धमका कर, उस इलाके पर राज करने लगा।
इसी अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए, मुहर्रम की 10वीं तारीख को हजरत इमाम शहीद हुए थे। इस दिन, को आशुरा कहते हैं, यानी मातम का दिन। आज भी, इराक की राजधानी बगदाद के दक्षिण पश्चिम के कर्बला में इमाम हुसैन और इमाम अब्बास के तीर्थ स्थल हैं। 'मुहर्रम' शब्द का मतलब है- वर्जित। यानी किसी भी तरह की हिंसा, लड़ाई झगड़े की मनाही। हजरत इमाम का जीवन, हमें अल्लाह में विश्वास, मानवता, अच्छाई, सत्य और त्याग सिखाता है। और मुसीबतों से लड़ने का हौसला देता है। उससे भी ज्यादा, वो हमें ये सिखा कर गए हैं कि लालच नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोहम्मद साहब के नवासे होते हुए भी, उन्होंने कभी उत्तराधिकारी होने का दावा नहीं किया। उन्हीं se सीखते हुए, आज हम हिंसा, बुराई से दूर रहेंगे, मस्जिदों-घरों में इबादत करेंगे और रोजे़ रखेंगे। रमजान के रोजों के बारे में हम सब जानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि रोजे सिर्फ रमजान के महीने में ही रखे जाते हैं। बल्कि मुहर्रम में भी रोजे रखने की परंपरा है। क्योंकि कहते हैं जब पैगंबर मदीना आए, तो उन्होंने आशूरा के दिन उपवास किया था। जब भी, कोई धर्म की लडा़ई लड़ता है, तो हमें लगता है कि वो उस खास धर्म की रक्षा के लिए है, लेकिन ऐसा नहीं है। वो धर्म की नहीं, बल्कि पूरी मानवता के कल्याण की लड़ाई है। क्योंकि हर धर्म का अर्थ ही- हर किसी का कल्याण है। द रेवोल्यूशन- देशभक्त हिंदुस्तानी की ओर से, आप सभी को नया साल मुबारक हो। आइए, इस मुहर्रम के पवित्र मौके पर हजरत इमाम की शिक्षाओं को अपना कर उन्हें, सच्ची श्रद्धांजलि दें।